साया जब भी ढलता है
कुछ न कुछ बदलता है
लम्हा एक लर्ज़िश है
इक बसीत जुम्बिश है
जैसे होंट मिलते हैं
जैसे फूल खिलते हैं
जैसे नूर बढ़ता है
जैसे नश्शा चढ़ता है
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वक़्फ़ा
नया साल
यकसाँ हैं फ़िराक़-ए-वस्ल दोनों
ग़म-ए-जानाँ ग़म-ए-दौराँ की तरफ़ यूँ आया
ख़मोश झील पे क्यूँ डोलने लगा बजरा
शुऊर में कभी एहसास में बसाऊँ उसे
बरस के छट गए बादल हवाएँ गाती हैं
इक सफ़ीना है तिरी याद अगर
एक नज़्म
इतना मानूस हूँ सन्नाटे से
मुमकिन है फ़ज़ाओं से ख़लाओं के जहाँ तक
हमेशा ज़ुल्म के मंज़र हमें दिखाए गए