इतना मानूस हूँ सन्नाटे से
कोई बोले तो बुरा लगता है
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बारिश की रुत थी रात थी पहलू-ए-यार था
बाजरे की फ़स्ल से चिड़ियाँ उड़ाने के लिए
तदफ़ीन
जन्नत मिली झूटों को अगर झूट के बदले
सिर्फ़ इस शौक़ से पूछी हैं हज़ारों बातें
अज़ली मसर्रतों की अज़ली मंज़िल
रुख़्सार हैं या अक्स है बर्ग-ए-गुल-ए-तर का
जब चटानों से लिपटता है समुंदर का शबाब
फिर भयानक तीरगी में आ गए
सारी दुनिया हमें पहचानती है
उम्र भर संग-ज़नी करते रहे अहल-ए-वतन
मिरा वजूद मिरी रूह को पुकारता है