बाजरे की फ़स्ल से चिड़ियाँ उड़ाने के लिए
एक दोशीज़ा खड़ी है कंकरों के ढेर पर
वो झुकी वो एक पत्थर सनसनाया, वो गिरा
कट गए हैं उस के झटके से मिरे क़ल्ब ओ जिगर
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सुब्ह होते ही निकल आते हैं बाज़ार में लोग
अजब तज़ाद में काटा है ज़िंदगी का सफ़र
शाम को सुब्ह-ए-चमन याद आई
बरस के छट गए बादल हवाएँ गाती हैं
अब तो शहरों से ख़बर आती है दीवानों की
वो पानी भरने चली इक जवान पंसारी
खड़ा था कब से ज़मीं पीठ पर उठाए हुए
क़लम दिल में डुबोया जा रहा है
फ़रेब खाने को पेशा बना लिया हम ने
खड़खड़ाती डोल वो धम से कुएँ में गिर गई
ढलान
इक मोहब्बत के एवज़ अर्ज़-ओ-समा दे दूँगा