मिरे हबीब मिरी मुस्कुराहटों पे न जा
ख़ुदा-गवाह मुझे आज भी तिरा ग़म है
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दिल पे जब दर्द की उफ़्ताद पड़ी होती है
कोई माज़ी के झरोकों से सदा देता है
दिन को रहते झील पर दरिया किनारे रात को
आम है कूचा-ओ-बाज़ार में सरकार की बात
तवील रातों की ख़ामुशी में मिरी फ़ुग़ाँ थक के सो गई है
वक़्त की क़ब्र में उल्फ़त का भरम रखने को
ग़म-गुसारी
वो दास्ताँ जो तिरी दिल-कशी ने छेड़ी थी
क़याम-ए-दैर-ओ-तवाफ़-ए-हरम नहीं करते
कल और आज
वक़्त की बात
वो बे-नियाज़ मुझे उलझनों में डाल गया