ज़िंदगी के वो किसी मोड़ पे गाहे गाहे
मिल तो जाते हैं मुलाक़ात कहाँ होती है
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दिल पे जब दर्द की उफ़्ताद पड़ी होती है
जिन्हें रास आ गए हैं ये सहर-नुमा अँधेरे
अब न काबा की तमन्ना न किसी बुत की हवस
महफ़िल महफ़िल सन्नाटे हैं
तवील रातों की ख़ामुशी में मिरी फ़ुग़ाँ थक के सो गई है
वो बे-नियाज़ मुझे उलझनों में डाल गया
सरगोशी
वक़्त की बात
क़याम-ए-दैर-ओ-तवाफ़-ए-हरम नहीं करते
आम है कूचा-ओ-बाज़ार में सरकार की बात
लम्हा लम्हा शुमार कौन करे
दिल के सुनसान जज़ीरों की ख़बर लाएगा