तमाम उम्र इसी रंज में तमाम हुई
कभी ये तुम ने न पूछा तिरी ख़ुशी क्या है
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क्यूँ चुप हैं वो बे-बात समझ में नहीं आता
मुझे ख़बर नहीं ग़म क्या है और ख़ुशी क्या है
कशिश-ए-हुस्न की ये अंजुमन-आराई है
यहाँ बग़ैर-फ़ुग़ाँ शब बसर नहीं होती
ये सदमा जीते जी दिल से हमारे जा नहीं सकता
सो हश्र में लिए दिल-ए-हसरत मआब में
क्या ज़रूरत बे-ज़रूरत देखना
किसी माशूक़ का आशिक़ से ख़फ़ा हो जाना
राह-ए-उल्फ़त का निशाँ ये है कि वो है बे-निशाँ
हमारा इंतिख़ाब अच्छा नहीं ऐ दिल तो फिर तू ही
रोक ले ऐ ज़ब्त जो आँसू के चश्म-ए-तर में है
नज़्ज़ारा जो होता है लब-ए-बाम तुम्हारा