रस्ते का इंतिख़ाब ज़रूरी सा हो गया
अब इख़्तिताम-ए-बाब ज़रूरी सा हो गया
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आँखों से अयाँ ज़ख़्म की गहराई तो अब है
मुझे अपने रूप की धूप दो कि चमक सकें मिरे ख़ाल-ओ-ख़द
बंद दरीचे सूनी गलियाँ अन-देखे अनजाने लोग
धड़कन धड़कन यादों की बारात अकेला कमरा
तिलिस्म-ज़ार-ए-शब-ए-माह में गुज़र जाए
फूलों में वो ख़ुशबू वो सबाहत नहीं आई
मकीनों के तअल्लुक़ ही से याद आती है हर बस्ती
शहर-ए-हवा में जलते रहना अंदेशों की चौखट पर
ये बरसों का तअल्लुक़ तोड़ देना चाहते हैं हम
छोटे छोटे कई बे-फ़ैज़ मफ़ादात के साथ
अजब नशा है तिरे क़ुर्ब में कि जी चाहे