अजब नशा है तिरे क़ुर्ब में कि जी चाहे
ये ज़िंदगी तिरी आग़ोश में गुज़र जाए
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फिर वही लम्बी दो-पहरें हैं फिर वही दिल की हालत है
मिरा है कौन दुश्मन मेरी चाहत कौन रखता है
तिरे जैसा मेरा भी हाल था न सुकून था न क़रार था
इतना पसपा न हो दीवार से लग जाएगा
तुम्हें ख़याल-ए-ज़ात है शुऊर-ए-ज़ात ही नहीं
बंद दरीचे सूनी गलियाँ अन-देखे अनजाने लोग
दिल हैं यूँ मुज़्तरिब मकानों में
कष्ट
कहा तख़्लीक़-ए-फ़न बोले बहुत दुश्वार तो होगी
धड़कन धड़कन यादों की बारात अकेला कमरा
तर्क-ए-तअल्लुक़ कर तो चुके हैं इक इम्कान अभी बाक़ी है