इतना पसपा न हो दीवार से लग जाएगा
इतने समझौते न कर सूरत-ए-हालात के साथ
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जाने किस चाह के किस प्यार के गुन गाते हो
शहर-ए-हवा में जलते रहना अंदेशों की चौखट पर
आँखों से अयाँ ज़ख़्म की गहराई तो अब है
तअल्लुक़ किर्चियों की शक्ल में बिखरा तो है फिर भी
ये बरसों का तअल्लुक़ तोड़ देना चाहते हैं हम
मुझ से मुख़्लिस था न वाक़िफ़ मिरे जज़्बात से था
रिहा कर दे क़फ़स की क़ैद से घायल परिंदे को
न गुमान मौत का है न ख़याल ज़िंदगी का
कहा तख़्लीक़-ए-फ़न बोले बहुत दुश्वार तो होगी
जो मिरी शबों के चराग़ थे जो मिरी उमीद के बाग़ थे
बंद दरीचे सूनी गलियाँ अन-देखे अनजाने लोग
मकीनों के तअल्लुक़ ही से याद आती है हर बस्ती