तिरे ग़ुरूर की इस्मत-दरी पे नादिम हूँ
तिरे लहू से भी दामन है दाग़दार मिरा
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है मुसीबत में गिरफ़्तार मुसीबत मेरी
न अपना नाम न चेहरा बदल के आया हूँ
उस ख़ुश-अदा के आइना-ख़ाने में जाऊँगा
नींद में गुनगुना रहा हूँ मैं
उजाला है जो ये कौन-ओ-मकाँ में
ख़ुद से निकलूँ भी तो रस्ता नहीं आसान मिरा
ये सारे फूल ये पत्थर उसी से मिलते हैं
अब भी अक्सर ध्यान तुम्हारा आता है
ऐसा एक मक़ाम हो जिस में दिल जैसी वीरानी हो
मैं किसी और ही आलम का मकीं हूँ प्यारे
वो और होंगे जो कार-ए-हवस पे ज़िंदा हैं
सुन! हिज्र और विसाल का जादू कहाँ गया