आसाँ नहीं इंसाफ़ की ज़ंजीर हिलाना
दुनिया को जहाँगीर का दरबार न समझो
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कीजिए किस किस से आख़िर ना-शनासी का गिला
यूँ ख़ुद को ख़्वाहिशात के अक्सर दिखाए रंग
चाहो तो मिरा दुख मिरा आज़ार न समझो
बरसों से इस में फल नहीं आए तो क्या हुआ
ख़ुद-फ़रामोश जो पाया है मुझे दुनिया ने