हवा में ख़ुशबुएँ मेरी पहचान बन गई थीं
मैं अपनी मिट्टी से फूल बन कर उभर रहा था
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उफ़ुक़ उफ़ुक़ नए सूरज निकलते रहते हैं
कुछ नक़्श हुवैदा हैं ख़यालों की डगर से
मेरे लहू में उस ने नया रंग भर दिया
चमन के रंग-ओ-बू ने इस क़दर धोका दिया मुझ को
कब धूप चली शाम ढली किस को ख़बर है
किसे ख़बर जब मैं शहर-ए-जाँ से गुज़र रहा था
शायान-ए-ज़िंदगी न थे हम मो'तबर न थे
ये सरगुज़िश्त-ए-ज़माना ये दास्तान-ए-हयात
न जब कोई शरीक-ए-ज़ात होगा
कच्चे मकान जितने थे बारिश में बह गए
वो शायद कोई सच्ची बात कह दे