चमन के रंग-ओ-बू ने इस क़दर धोका दिया मुझ को
कि मैं ने शौक़-ए-गुल-बोसी में काँटों पर ज़बाँ रख दी
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शाम तन्हाई धुआँ उठता बराबर देखते
दिल में इक जज़्बा-ए-बेदाद-ओ-जफ़ा ही होगा
शायान-ए-ज़िंदगी न थे हम मो'तबर न थे
ज़मीन पर ही रहे आसमाँ के होते हुए
मिरी निगाह का पैग़ाम बे-सदा जो हुआ
तिलिस्म-ए-गुम्बद-ए-बे-दर किसी पे वा न हुआ
वो ज़िंदगी है उस को ख़फ़ा क्या करे कोई
तूफ़ान-ए-अब्र-ओ-बाद से हर-सू नमी भी है
दश्त-दर-दश्त अक्स-ए-दर है यहाँ
इक नूर था कि पिछले पहर हम-सफ़र हुआ
हरीफ़-ए-दास्ताँ करना पड़ा है
मैं उस का नाम घुले पानियों पे लिखता क्या