धूप की गरमी से ईंटें पक गईं फल पक गए
इक हमारा जिस्म था अख़्तर जो कच्चा रह गया
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यक-ब-यक मौसम की तब्दीली क़यामत ढा गई
मिरी निगाह का पैग़ाम बे-सदा जो हुआ
मैं ने यूँ देखा उसे जैसे कभी देखा न था
जो मुझ को देख के कल रात रो पड़ा था बहुत
शिकारी रात भर बैठे रहे ऊँची मचानों पर
मंज़िलों के फ़ासले दीवार-ओ-दर में रह गए
ये सरगुज़िश्त-ए-ज़माना ये दास्तान-ए-हयात
वो जो दीवार-ए-आश्नाई थी
आँधी में चराग़ जल रहे हैं
मिरी गली के मकीं ये मिरे रफ़ीक़-ए-सफ़र
तमाम हर्फ़ मिरे लब पे आ के जम से गए