तमाम हर्फ़ मिरे लब पे आ के जम से गए
न जाने मैं कहा क्या और उस ने समझा क्या
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थी तितलियों के तआ'क़ुब में ज़िंदगी मेरी
दर्द की दौलत-ए-नायाब को रुस्वा न करो
तिलिस्म-ए-गुम्बद-ए-बे-दर किसी पे वा न हुआ
चमन के रंग-ओ-बू ने इस क़दर धोका दिया मुझ को
अपना साया भी न हम-राह सफ़र में रखना
कब धूप चली शाम ढली किस को ख़बर है
हर्फ़-ए-बे-आवाज़ से दहका हुआ
हवा में ख़ुशबुएँ मेरी पहचान बन गई थीं
तूफ़ान-ए-अब्र-ओ-बाद से हर-सू नमी भी है
किसे ख़बर जब मैं शहर-ए-जाँ से गुज़र रहा था
न जब कोई शरीक-ए-ज़ात होगा