कब धूप चली शाम ढली किस को ख़बर है
इक उम्र से मैं अपने ही साए में खड़ा हूँ
Anwar Masood
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Habib Jalib
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Mir Taqi Mir
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Faiz Ahmad Faiz
Allama Iqbal
Parveen Shakir
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था एक साया सा पीछे पीछे जो मुड़ के देखा तो कुछ नहीं था
वो रंग-ए-तमन्ना है कि सद-रंग हुआ हूँ
दश्त-दर-दश्त अक्स-ए-दर है यहाँ
ज़माना अपनी उर्यानी पे ख़ूँ रोएगा कब तक
जो मुझ को देख के कल रात रो पड़ा था बहुत
तूफ़ाँ से क़र्या क़र्या एक हुए
वो कम-सुख़न था मगर ऐसा कम-सुख़न भी न था
पहले तो सोच के दोज़ख़ में जलाता है मुझे
हवा में ख़ुशबुएँ मेरी पहचान बन गई थीं
कच्चे मकान जितने थे बारिश में बह गए
मंज़िलों के फ़ासले दीवार-ओ-दर में रह गए
कुछ नक़्श हुवैदा हैं ख़यालों की डगर से