कच्चे मकान जितने थे बारिश में बह गए
वर्ना जो मेरा दुख था वो दुख उम्र भर का था
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यक-ब-यक मौसम की तब्दीली क़यामत ढा गई
ये सरगुज़िश्त-ए-ज़माना ये दास्तान-ए-हयात
मैं ने यूँ देखा उसे जैसे कभी देखा न था
कब धूप चली शाम ढली किस को ख़बर है
उफ़ुक़ उफ़ुक़ नए सूरज निकलते रहते हैं
मैं हर्फ़ देखूँ कि रौशनी का निसाब देखूँ
वो रंग-ए-तमन्ना है कि सद-रंग हुआ हूँ
शाम तन्हाई धुआँ उठता बराबर देखते
शिकारी रात भर बैठे रहे ऊँची मचानों पर
मंज़िलों के फ़ासले दीवार-ओ-दर में रह गए
वो ज़िंदगी है उस को ख़फ़ा क्या करे कोई
हरीफ़-ए-दास्ताँ करना पड़ा है