ये सरगुज़िश्त-ए-ज़माना ये दास्तान-ए-हयात
अधूरी बात में भी रह गई कमी मेरी
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हमें ख़बर है कोई हम-सफ़र न था फिर भी
ज़माना अपनी उर्यानी पे ख़ूँ रोएगा कब तक
थी तितलियों के तआ'क़ुब में ज़िंदगी मेरी
दश्त-दर-दश्त अक्स-ए-दर है यहाँ
तूफ़ान-ए-अब्र-ओ-बाद से हर-सू नमी भी है
मैं अपनी ज़ात की तशरीह करता फिरता था
हर्फ़-ए-बे-आवाज़ से दहका हुआ
गुज़रते वक़्त ने क्या क्या न चारा-साज़ी की
कुछ नक़्श हुवैदा हैं ख़यालों की डगर से
फिर ये हुआ कि लोग दरीचों से हट गए
अपना साया भी न हम-राह सफ़र में रखना