मैं अपनी ज़ात की तशरीह करता फिरता था
न जाने फिर कहाँ आवाज़ खो गई मेरी
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यक-ब-यक मौसम की तब्दीली क़यामत ढा गई
शिकारी रात भर बैठे रहे ऊँची मचानों पर
मैं हर्फ़ देखूँ कि रौशनी का निसाब देखूँ
तमाम हर्फ़ मिरे लब पे आ के जम से गए
कच्चे मकान जितने थे बारिश में बह गए
कब धूप चली शाम ढली किस को ख़बर है
ऐ जलती रुतो गवाह रहना
दश्त-दर-दश्त अक्स-ए-दर है यहाँ
मेरे लहू में उस ने नया रंग भर दिया
तूफ़ाँ से क़र्या क़र्या एक हुए
हमें ख़बर है कोई हम-सफ़र न था फिर भी