ज़माना अपनी उर्यानी पे ख़ूँ रोएगा कब तक
हमें देखो कि अपने आप को ओढ़े हुए हैं
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गुज़रते वक़्त ने क्या क्या न चारा-साज़ी की
हमें ख़बर है कोई हम-सफ़र न था फिर भी
मंज़िलों के फ़ासले दीवार-ओ-दर में रह गए
मिरी गली के मकीं ये मिरे रफ़ीक़-ए-सफ़र
तिलिस्म-ए-गुम्बद-ए-बे-दर किसी पे वा न हुआ
शाम तन्हाई धुआँ उठता बराबर देखते
ऐ जलती रुतो गवाह रहना
मैं ने जो ख़्वाब अभी देखा नहीं है 'अख़्तर'
चमन के रंग-ओ-बू ने इस क़दर धोका दिया मुझ को
क़र्या-ए-जाँ से गुज़र कर हम ने ये देखा भी है
कुछ नक़्श हुवैदा हैं ख़यालों की डगर से
न जाने लोग ठहरते हैं वक़्त-ए-शाम कहाँ