न जाने लोग ठहरते हैं वक़्त-ए-शाम कहाँ
हमें तो घर में भी रुकने का हौसला न हुआ
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
Wasi Shah
Mir Taqi Mir
Ahmad Faraz
Jaun Eliya
Parveen Shakir
Mohsin Naqvi
Gulzar
Anwar Masood
Javed Akhtar
Habib Jalib
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(838) Peoples Rate This
तूफ़ान-ए-अब्र-ओ-बाद से हर-सू नमी भी है
ज़मीन पर ही रहे आसमाँ के होते हुए
लोग नज़रों को भी पढ़ लेते हैं
वो कम-सुख़न था मगर ऐसा कम-सुख़न भी न था
रुख़्सत-ए-रक़्स भी है पाँव में ज़ंजीर भी है
शाख़ों पे ज़ख़्म हैं कि शगूफ़े खिले हुए
इक नूर था कि पिछले पहर हम-सफ़र हुआ
पहले तो सोच के दोज़ख़ में जलाता है मुझे
धूप की गरमी से ईंटें पक गईं फल पक गए
'अख़्तर' गुज़रते लम्हों की आहट पे यूँ न चौंक
अपने क़दमों ही की आवाज़ से चौंका होता
जो मुझ को देख के कल रात रो पड़ा था बहुत