अपने क़दमों ही की आवाज़ से चौंका होता

अपने क़दमों ही की आवाज़ से चौंका होता

यूँ मिरे पास से हो कर कोई गुज़रा होता

चाँदनी से भी सुलग उठता है वीराना-ए-जाँ

ये अगर जानते सूरज ही को चाहा होता

ज़िंदगी ख़्वाब-ए-परेशाँ है बहार एक ख़याल

इन को मिलने से बहुत पहले ये सोचा होता

दोपहर गुज़री मगर धूप का आलम है वही

कोई साया किसी दीवार से उतरा होता

रेत उड़ उड़ के हवाओं में चली आती है

शहर-ए-अरमाँ सर-ए-सहरा न बसाया होता

आरज़ू उम्र-ए-गुरेज़ाँ तो नहीं तुम तो नहीं

ये सरकता हुआ लम्हा कहीं ठहरा होता

पीछे पीछे कोई साया सा चला आता था

हाए वो कौन था मुड़ कर उसे देखा होता

तुझ से यक गो न तअ'ल्लुक़ मुझे इक उम्र से था

ज़िंदगी तू ने ही बढ़ कर मुझे रोका होता

जाने क्या सोच के लोगों ने बुझाए हैं चराग़

रात कटती तो सहर होती उजाला होता

अपने दामन को जला कर मैं चराग़ाँ करता

अगर इस राख में 'अख़्तर' कोई शो'ला होता

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