वो कम-सुख़न था मगर ऐसा कम-सुख़न भी न था
कि सच ही बोलता था जब भी बोलता था बहुत
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यक-ब-यक मौसम की तब्दीली क़यामत ढा गई
चेहरे के ख़द्द-ओ-ख़ाल में आईने जड़े हैं
वो रंग-ए-तमन्ना है कि सद-रंग हुआ हूँ
ख़्वाब-महल में कौन सर-ए-शाम आ कर पत्थर मारता है
शिकारी रात भर बैठे रहे ऊँची मचानों पर
शाम तन्हाई धुआँ उठता बराबर देखते
ऐ जलती रुतो गवाह रहना
वो जो दीवार-ए-आश्नाई थी
मैं अपनी ज़ात की तशरीह करता फिरता था
पहले तो सोच के दोज़ख़ में जलाता है मुझे
शायान-ए-ज़िंदगी न थे हम मो'तबर न थे
धूप की गरमी से ईंटें पक गईं फल पक गए