अब भी आती है तिरी याद प इस कर्ब के साथ
टूटती नींद में जैसे कोई सपना देखा
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जुर्म-ए-हस्ती की सज़ा क्यूँ नहीं देते मुझ को
जो संग हो के मुलाएम है सादगी की तरह
वो ख़ुद तो मर ही गया था मुझे भी मार गया
दिल वो प्यासा है कि दरिया का तमाशा देखे
दुनिया भी पेश आई बहुत बे-रुख़ी के साथ
हर बुत यहाँ टूटे हुए पत्थर की तरह है
अश्क जब दीदा-ए-तर से निकला
जीते-जी दुख सुख के लम्हे आते जाते रहते हैं
चाँदनी के हाथ भी जब हो गए शल रात को
अपना दुख अपना है प्यारे ग़ैर को क्यूँ उलझाओगे