ग़म अज़ीज़ों का हसीनों की जुदाई देखी
देखें दिखलाए अभी गर्दिश-ए-दौराँ क्या क्या
Javed Akhtar
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दिल में ख़याल-ए-नर्गिस-ए-जानाना आ गया
उस मह-जबीं से आज मुलाक़ात हो गई
वक़्त की क़द्र
मिरी शाम-ए-ग़म को वो बहला रहे हैं
ख़यालिस्तान-ए-हस्ती में अगर ग़म है ख़ुशी भी है
यक़ीन-ए-वादा नहीं ताब-ए-इंतिज़ार नहीं
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता
आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्या
मुझे है ए'तिबार-ए-वादा लेकिन
किया है आने का वादा तो उस ने
झूम कर बदली उठी और छा गई
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर