जब छेड़ती हैं उन को गुमनाम आरज़ुएँ
वो मुझ को देखते हैं मेरी नज़र बचा के
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तय कर चुके ये ज़िंदगी-ए-जावेदाँ से हम
नींद आ गई थी मंज़िल-ए-इरफ़ाँ से गुज़र के
जुनूँ से राह-ए-ख़िरद में भी काम लेना था
ज़ुल्मत-कदों में कल जो शुआ-ए-सहर गई
हम अहल-ए-दिल ने मेयार-ए-मोहब्बत भी बदल डाले
अब न वो शोरिश-ए-रफ़्तार न वो जोश-ए-जुनूँ
आँखों में अश्क भर के मुझ से नज़र मिला के
जब कभी देखा है ऐ 'ज़ैदी' निगाह-ए-ग़ौर से
जो मक़्सद गिर्या-ए-पैहम का है वो हम समझते हैं
हैं वजूद-ए-शय में पिन्हाँ अज़ल ओ अबद के रिश्ते
ऐश ही ऐश है न सब ग़म है
ग़ज़ब हुआ कि इन आँखों में अश्क भर आए