जब कभी देखा है ऐ 'ज़ैदी' निगाह-ए-ग़ौर से
हर हक़ीक़त में मिले हैं चंद अफ़्साने मुझे
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तिरे दयार में कोई ग़म-आश्ना तो नहीं
है ख़मोश आँसुओं में भी नशात-ए-कामरानी
नया मय-कदे में निज़ाम आ गया
ज़ुल्मत-कदों में कल जो शुआ-ए-सहर गई
राह-ए-उल्फ़त में मिले ऐसे भी दीवाने मुझे
दिल में जो दर्द है वो निगाहों से है अयाँ
दबी आवाज़ में करती थी कल शिकवे ज़मीं मुझ से
मुद्दतों से ख़लिश जो थी जैसे वो कम सी हो चली
मोनिस-ए-शब रफ़ीक़-ए-तन्हाई
होली
तेरे हल्के से तबस्सुम का इशारा भी तो हो
मिरे हाथ सुलझा ही लेंगे किसी दिन