मुद्दतों से ख़लिश जो थी जैसे वो कम सी हो चली
आज मिरे सवाल का मिल ही गया जवाब क्या
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इक आह-ए-ज़ेर-ए-लब के गुनहगार हो गए
आँखों में लिए जल्वा-ए-नैरंग-ए-तमाशा
अब दर्द में वो कैफ़ियत-ए-दर्द नहीं है
जवानी हरीफ़-ए-सितम है तो क्या ग़म
नींद आ गई थी मंज़िल-ए-इरफ़ाँ से गुज़र के
जिन हौसलों से मेरा जुनूँ मुतमइन न था
मोनिस-ए-शब रफ़ीक़-ए-तन्हाई
पी तो लूँ आँखों में उमडे हुए आँसू लेकिन
ये दुश्मनी है साक़ी या दोस्ती है साक़ी
है ख़मोश आँसुओं में भी नशात-ए-कामरानी
आँखों में अश्क भर के मुझ से नज़र मिला के
जब छेड़ती हैं उन को गुमनाम आरज़ुएँ