जिन हौसलों से मेरा जुनूँ मुतमइन न था
वो हौसले ज़माने के मेयार हो गए
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दिल का लहू निगाह से टपका है बार-हा
मस्ती-ए-गाम भी थी ग़फ़लत-ए-अंजाम के साथ
जो मक़्सद गिर्या-ए-पैहम का है वो हम समझते हैं
ज़ुल्मत-कदों में कल जो शुआ-ए-सहर गई
मिरे हाथ सुलझा ही लेंगे किसी दिन
दबी आवाज़ में करती थी कल शिकवे ज़मीं मुझ से
दिल में जो दर्द है वो निगाहों से है अयाँ
तेरे हल्के से तबस्सुम का इशारा भी तो हो
तय कर चुके ये ज़िंदगी-ए-जावेदाँ से हम
गो वसीअ' सहरा में इक हक़ीर ज़र्रा हूँ
ग़ैर पूछें भी तो हम क्या अपना अफ़्साना कहें