दिल का लहू निगाह से टपका है बार-हा
हम राह-ए-ग़म में ऐसी भी मंज़िल से आए हैं
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गुफ़्तुगू के ख़त्म हो जाने पर आया ये ख़याल
जिन हौसलों से मेरा जुनूँ मुतमइन न था
हार के भी नहीं मिटी दिल से ख़लिश हयात की
ये दुश्मनी है साक़ी या दोस्ती है साक़ी
जुनूँ से राह-ए-ख़िरद में भी काम लेना था
भूलती हुई याद
गो वसीअ' सहरा में इक हक़ीर ज़र्रा हूँ
आँखों में अश्क भर के मुझ से नज़र मिला के
मस्ती-ए-गाम भी थी ग़फ़लत-ए-अंजाम के साथ
जवानी हरीफ़-ए-सितम है तो क्या ग़म
तय कर चुके ये ज़िंदगी-ए-जावेदाँ से हम
दीन ओ दिल पहली ही मंज़िल में यहाँ काम आए