हार के भी नहीं मिटी दिल से ख़लिश हयात की
कितने निज़ाम मिट गए जश्न-ए-ज़फ़र के बाद भी
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जिन हौसलों से मेरा जुनूँ मुतमइन न था
ऐश ही ऐश है न सब ग़म है
ग़ैर पूछें भी तो हम क्या अपना अफ़्साना कहें
आँखों में अश्क भर के मुझ से नज़र मिला के
ग़ज़ब हुआ कि इन आँखों में अश्क भर आए
जो मक़्सद गिर्या-ए-पैहम का है वो हम समझते हैं
हिज्र की रात ये हर डूबते तारे ने कहा
एक तुम्हारी याद ने लाख दिए जलाए हैं
तिरे दयार में कोई ग़म-आश्ना तो नहीं
कम-ज़र्फ़ एहतियात की मंज़िल से आए हैं
अब दर्द में वो कैफ़ियत-ए-दर्द नहीं है
इक आह-ए-ज़ेर-ए-लब के गुनहगार हो गए