मिरी निगाह में वो रिंद ही नहीं साक़ी
जो होशियारी ओ मस्ती में इम्तियाज़ करे
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तुझे याद क्या नहीं है मिरे दिल का वो ज़माना
मकानी हूँ कि आज़ाद-ए-मकाँ हूँ?
न तख़्त-ओ-ताज में ने लश्कर-ओ-सिपाह में है
साक़ी-नामा
नहीं इस खुली फ़ज़ा में कोई गोशा-ए-फ़राग़त
ख़िरद ने मुझ को अता की नज़र हकीमाना
वजूद-ए-ज़न से है तस्वीर-ए-काएनात में रंग
हर इक ज़र्रे में है शायद मकीं दिल
अमीन-ए-राज़ है मर्दान-ए-हूर की दरवेशी
अक़्ल गो आस्ताँ से दूर नहीं
हिमाला
अनोखी वज़्अ' है सारे ज़माने से निराले हैं