धोने की है ऐ रिफॉर्मर जा बाक़ी
कपड़े पे है जब तलक कि धब्बा बाक़ी है
धो शौक़ से धब्बे को पे इतना न रगड़
धब्बा रहे कपड़े पे न कपड़ा बाक़ी
Faiz Ahmad Faiz
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कोई महरम नहीं मिलता जहाँ में
तुम ऐसे कौन ख़ुदा हो कि उम्र भर तुम से
आ रही है चाह-ए-यूसुफ़ से सदा
जब मायूसी दिलों पे छा जाती है
सदा एक ही रुख़ नहीं नाव चलती
ख़ूबियाँ अपने में गो बे-इंतिहा पाते हैं हम
आगे बढ़े न क़िस्सा-ए-इश्क़-ए-बुताँ से हम
क़ैस हो कोहकन हो या 'हाली'
धूम थी अपनी पारसाई की
जीते जी मौत के तुम मुँह में न जाना हरगिज़
गुल-ओ-गुलचीं का गिला बुलबुल-ए-ख़ुश-लहजा न कर
हम रोज़-ए-विदाअ' उन से हँस हँस के हुए रुख़्सत