ज़ुहहाद को तू ने महव-ए-तमजीद किया
उश्शाक़ को मस्त-ए-लज़्ज़त-ए-दीद किया
ताअत में रहा न हक़ की साझी कोई
तौहीद को तू ने आ के तौहीद किया
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इश्क़
सख़्त मुश्किल है शेवा-ए-तस्लीम
इंक़लाब-ए-रोज़गार
ख़ूबियाँ अपने में गो बे-इंतिहा पाते हैं हम
बात कुछ हम से बन न आई आज
मरज़-ए-पीरी ला-इलाज है
हक़ वफ़ा के जो हम जताने लगे
चोर है दिल में कुछ न कुछ यारो
मर्सिया-ए-देहली-ए-मरहूम
धूम थी अपनी पारसाई की
कहना बड़ों का मानो
राह के तालिब हैं पर बे-राह पड़ते हैं क़दम