सख़्त मुश्किल है शेवा-ए-तस्लीम
हम भी आख़िर को जी चुराने लगे
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दिल से ख़याल-ए-दोस्त भुलाया न जाएगा
दिल को दर्द-आश्ना किया तू ने
यारान-ए-तेज़-गाम ने महमिल को जा लिया
घर है वहशत-ख़ेज़ और बस्ती उजाड़
तज़्किरा देहली-ए-मरहूम का ऐ दोस्त न छेड़
मुझे कल के वादे पे करते हैं रुख़्सत
हम ने अव्वल से पढ़ी है ये किताब आख़िर तक
ऐ ऐश-ओ-तरब तू ने जहाँ राज किया
मक्र-ओ-रिया
जुनूँ कार-फ़रमा हुआ चाहता है
मौजूदा तरक़्क़ी का अंजाम
आगे बढ़े न क़िस्सा-ए-इश्क़-ए-बुताँ से हम