शहद-ओ-शकर से शीरीं उर्दू ज़बाँ हमारी
होती है जिस के बोले मीठी ज़बाँ हमारी
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बहुत जी ख़ुश हुआ 'हाली' से मिल कर
हर सम्त गर्द-ए-नाक़ा-ए-लैला बुलंद है
ऐ ऐश-ओ-तरब तू ने जहाँ राज किया
है जुस्तुजू कि ख़ूब से है ख़ूब-तर कहाँ
दरिया को अपनी मौज की तुग़्यानियों से काम
उस के जाते ही ये क्या हो गई घर की सूरत
गुल-ओ-गुलचीं का गिला बुलबुल-ए-ख़ुश-लहजा न कर
इंक़लाब-ए-रोज़गार
राह के तालिब हैं पर बे-राह पड़ते हैं क़दम
आगे बढ़े न क़िस्सा-ए-इश्क़-ए-बुताँ से हम
सदा एक ही रुख़ नहीं नाव चलती
कुछ हँसी खेल सँभलना ग़म-ए-हिज्राँ में नहीं