उस के जाते ही ये क्या हो गई घर की सूरत
न वो दीवार की सूरत है न दर की सूरत
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नअत
मुझे कल के वादे पे करते हैं रुख़्सत
हम जिस पे मर रहे हैं वो है बात ही कुछ और
कब्क ओ क़ुमरी में है झगड़ा कि चमन किस का है
मर्सिया-ए-देहली-ए-मरहूम
धूम थी अपनी पारसाई की
ख़ूबियाँ अपने में गो बे-इंतिहा पाते हैं हम
हर सम्त गर्द-ए-नाक़ा-ए-लैला बुलंद है
मुँह कहाँ तक छुपाओगे हम से
यही है इबादत यही दीन ओ ईमाँ
मिट्टी का दिया
तक़ाज़ा-ए-सिन