यही है इबादत यही दीन ओ ईमाँ
कि काम आए दुनिया में इंसाँ के इंसाँ
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कर के बीमार दी दवा तू ने
इश्क़ को तर्क-ए-जुनूँ से क्या ग़रज़
है जुस्तुजू कि ख़ूब से है ख़ूब-तर कहाँ
कब्क ओ क़ुमरी में है झगड़ा कि चमन किस का है
हक़ वफ़ा के जो हम जताने लगे
क्यूँ बढ़ाते हो इख़्तिलात बहुत
आलिम ओ जाहिल में क्या फ़र्क़ है
उस के जाते ही ये क्या हो गई घर की सूरत
कोई महरम नहीं मिलता जहाँ में
है ये तकिया तिरी अताओं पर
मक्र-ओ-रिया