'हाली' रह-ए-रास्त जो कि चलते हैं सदा
ख़तरा उन्हें गुर्ग का न डर शेरों का
लेकिन उन भेड़ियों से वाजिब है हज़र
भेड़ों के लिबास में हैं जो जल्वा-नुमा
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राह के तालिब हैं पर बे-राह पड़ते हैं क़दम
दिल को दर्द-आश्ना किया तू ने
रंज और रंज भी तन्हाई का
कर के बीमार दी दवा तू ने
उस के जाते ही ये क्या हो गई घर की सूरत
कुछ हँसी खेल सँभलना ग़म-ए-हिज्राँ में नहीं
मुँह कहाँ तक छुपाओगे हम से
तुम को हज़ार शर्म सही मुझ को लाख ज़ब्त
सख़्त मुश्किल है शेवा-ए-तस्लीम
धूम थी अपनी पारसाई की
फ़राग़त से दुनिया में हर दम न बैठो
इक दर्द हो बस आठ पहर दिल में कि जिस को