फ़राग़त से दुनिया में हर दम न बैठो
अगर चाहते हो फ़राग़त ज़ियादा
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क़ैस हो कोहकन हो या 'हाली'
घर है वहशत-ख़ेज़ और बस्ती उजाड़
रोना है ये कि आप भी हँसते थे वर्ना याँ
मुँह कहाँ तक छुपाओगे हम से
कोई महरम नहीं मिलता जहाँ में
उस के जाते ही ये क्या हो गई घर की सूरत
दरिया को अपनी मौज की तुग़्यानियों से काम
तुम को हज़ार शर्म सही मुझ को लाख ज़ब्त
रिफॉर्म की हद
तक़ाज़ा-ए-सिन
बहुत जी ख़ुश हुआ 'हाली' से मिल कर
हम जिस पे मर रहे हैं वो है बात ही कुछ और