हैं जहल में सब आलिम ओ जाहिल हम-सर
आता नहीं फ़र्क़ इस के सिवा उन में नज़र
आलिम को है इल्म अपनी नादानी का
जाहिल को नहीं जहल की कुछ अपने ख़बर
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जीते जी मौत के तुम मुँह में न जाना हरगिज़
मौजूदा तरक़्क़ी का अंजाम
होती नहीं क़ुबूल दुआ तर्क-ए-इश्क़ की
हक़ीक़त महरम-ए-असरार से पूछ
'हाली' सुख़न में 'शेफ़्ता' से मुस्तफ़ीद है
सदा एक ही रुख़ नहीं नाव चलती
मुनाजात-ए-बेवा
वो उम्मीद क्या जिस की हो इंतिहा
मुख़ालिफ़त का जवाब ख़ामोशी से बेहतर नहीं
हम जिस पे मर रहे हैं वो है बात ही कुछ और
बहुत जी ख़ुश हुआ 'हाली' से मिल कर
शहद-ओ-शकर से शीरीं उर्दू ज़बाँ हमारी