होती नहीं क़ुबूल दुआ तर्क-ए-इश्क़ की
दिल चाहता न हो तो ज़बाँ में असर कहाँ
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फ़रिश्ते से बढ़ कर है इंसान बनना
इश्क़ को तर्क-ए-जुनूँ से क्या ग़रज़
बे-क़रारी थी सब उम्मीद-ए-मुलाक़ात के साथ
हम ने अव्वल से पढ़ी है ये किताब आख़िर तक
नशात-ए-उमीद
मौजूदा तरक़्क़ी का अंजाम
बरखा-रुत
धूम थी अपनी पारसाई की
दिल से ख़याल-ए-दोस्त भुलाया न जाएगा
इश्क़ सुनते थे जिसे हम वो यही है शायद
मुझे कल के वादे पे करते हैं रुख़्सत