तज़्किरा देहली-ए-मरहूम का ऐ दोस्त न छेड़
न सुना जाएगा हम से ये फ़साना हरगिज़
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रंज और रंज भी तन्हाई का
फ़रिश्ते से बढ़ कर है इंसान बनना
उस के जाते ही ये क्या हो गई घर की सूरत
घर है वहशत-ख़ेज़ और बस्ती उजाड़
दिल से ख़याल-ए-दोस्त भुलाया न जाएगा
ऐ ऐश-ओ-तरब तू ने जहाँ राज किया
सुकूत-ए-दरवेश-ए-जाहिल
कहते हैं जिस को जन्नत वो इक झलक है तेरी
रोना है ये कि आप भी हँसते थे वर्ना याँ
वस्ल का उस के दिल-ए-ज़ार तमन्नाई है
अब वो अगला सा इल्तिफ़ात नहीं