छूते ही आशाएँ बिखरीं जैसे सपने टूट गए
किस ने अटकाए थे ये काग़ज़ के फूल बबूल में
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एक ख़्वाहिश
उबाल
यूँ हुआ है चाक मल्बूस-ए-यक़ीं सिलता नहीं
'अमीक़' छेड़ ग़ज़ल ग़म की इंतिहा कब है
बम्बई रात समुंदर
सावन आया छाने लगे घोर घन घोर बादल
अंधेरे में सोचने की मश्क़
ऐनक के दोनों शीशे ही अटे हुए थे धूल में
सिगरेट जिसे सुलगता हुआ कोई छोड़ दे
ऐ अज़ल से....
लम्बी रात से जब मिली उस की ज़ुल्फ़-ए-दराज़
कौन है ये मतला-ए-तख़ईल पर महताब सा