ख़ौफ़ बन कर ये ख़याल आता है अक्सर मुझ को
ख़ौफ़ बन कर ये ख़याल आता है अक्सर मुझ को
दश्त कर जाएगा इक रोज़ समुंदर मुझ को
मैं सरापा हूँ ख़बर-नामा-ए-इमरोज़-ए-जहाँ
कल भुला दे न ये दुनिया कहीं पढ़ कर मुझ को
हर नफ़स मुझ में तग़य्युर की हवाए लर्ज़ां
मुर्तसिम कर न सका कोई भी मंज़र मुझ को
अपने साहिल पे मैं ख़ुद तिश्ना-दहन बैठा हूँ
देख दरिया की तराई से निकल कर मुझ को
मिरे साए में भी मुझ को नहीं रहने देगा
मेरे ही घर में रखेगा कोई बे-घर मुझ को
कारगर कोई भी तदबीर न होने देगा
क्या मुक़द्दर है कि ले जाएगा दर-दर मुझ को
काम आएगी न बेदार-निगाही भी 'अमीर'
ख़्वाब कह जाएगा इक दिन मिरा पैकर मुझ को
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