नज़र आए क्या मुझ से फ़ानी की सूरत
कि पिन्हाँ हूँ दर्द-ए-निहानी की सूरत
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फेंकिए क्यूँ मय-ए-नाक़िस साक़ी
मोहब्बत हो तो बर्क़-ए-जिस्म-ओ-जाँ हो
बे-तरह पड़ती है नज़र उन की
मैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा हूँ छुट के जाऊँगा कहाँ
है भी और फिर नज़र नहीं आती
हर शय को इंतिहा है यक़ीं है कि वस्ल हो
हो रहा है टुकड़े टुकड़े दिल मेरे ग़म-ख़्वार का
हश्र को मानता हूँ बे-देखे
कैसी हया कहाँ की वफ़ा पास-ए-ख़ल्क़ क्या
मिट्टी ख़राब है तिरे कूचे में वर्ना हम