कैसी हया कहाँ की वफ़ा पास-ए-ख़ल्क़ क्या
हाँ ये सही कि आप को आना यहाँ न था
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शर्म भी इक तरह की चोरी है
मिट्टी ख़राब है तिरे कूचे में वर्ना हम
यूसुफ़-ए-हुस्न का हुस्न आप ख़रीदार रहा
उन से हम लौ लगाए बैठे हैं
मिरी नुमूद से पैदा है रंग-ए-नाकामी
अश्क बेताब व निगह बे-बाक व चश्म-ए-तर ख़राब
मैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा हूँ छुट के जाऊँगा कहाँ
गोया कि सब ग़लत हैं मिरी बद-गुमानियाँ
'अनवर' ने बदले जान के ली जिंस-ए-दर्द-ए-दिल
वो जो गर्दन झुकाए बैठे हैं