मिट्टी ख़राब है तिरे कूचे में वर्ना हम
अब तक तो जिस ज़मीं पे रहे आसमाँ रहे
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शर्म भी इक तरह की चोरी है
थक के बैठे हो दर-ए-सौम'अ पर क्या 'अनवर'
उन से हम लौ लगाए बैठे हैं
हश्र को मानता हूँ बे-देखे
कुछ ख़बर होती तो मैं अपनी ख़बर क्यूँ रखता
नाकामी-ए-विसाल का पैग़ाम है मुझे
'अनवर' ने बदले जान के ली जिंस-ए-दर्द-ए-दिल
अश्क बेताब व निगह बे-बाक व चश्म-ए-तर ख़राब
न मैं समझा न आप आए कहीं से
अल्लाह-रे फ़र्त-ए-शौक़-ए-असीरी के शौक़ में
देखा जो मर्ग तो मरना ज़ियाँ न था