न मैं समझा न आप आए कहीं से
पसीना पोछिए अपनी जबीं से
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अश्क बेताब व निगह बे-बाक व चश्म-ए-तर ख़राब
कुछ ख़बर होती तो मैं अपनी ख़बर क्यूँ रखता
कैसी हया कहाँ की वफ़ा पास-ए-ख़ल्क़ क्या
देखा जो मर्ग तो मरना ज़ियाँ न था
फेंकिए क्यूँ मय-ए-नाक़िस साक़ी
वो जो गर्दन झुकाए बैठे हैं
आँखें दिखाईं ग़ैर को मेरी ख़ता के साथ
शर्म भी इक तरह की चोरी है
मिट्टी ख़राब है तिरे कूचे में वर्ना हम
नज़र आए क्या मुझ से फ़ानी की सूरत
'अनवर' ने बदले जान के ली जिंस-ए-दर्द-ए-दिल