वो जो गर्दन झुकाए बैठे हैं
हश्र क्या क्या उठाए बैठे हैं
Wasi Shah
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Faiz Ahmad Faiz
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क़ामत ही लिखा हम ने सदा जा-ए-क़यामत
नज़र आए क्या मुझ से फ़ानी की सूरत
थक के बैठे हो दर-ए-सौम'अ पर क्या 'अनवर'
मिट्टी ख़राब है तिरे कूचे में वर्ना हम
कैसी हया कहाँ की वफ़ा पास-ए-ख़ल्क़ क्या
गोया कि सब ग़लत हैं मिरी बद-गुमानियाँ
गरचे क्या कुछ थे मगर आप को कुछ भी न गिना
नींद का काम गरचे आना है
सूरत छुपाइए किसी सूरत-परस्त से
कुछ ख़बर होती तो मैं अपनी ख़बर क्यूँ रखता